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90 के दशक के बाद की हिन्दी पत्रकारिता और बढ़ते पाठकों से जागी नई उम्मीद

सुरेंद्र जैन

हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में 1990 के दशक में भारतीय भाषाओं के अखबारों में अमर उजाला, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि के नगरों और कस्बों से कई संस्करण प्रकाशित होने शुरू हुए। पहले जहां महानगरों में ही अखबार छपते थे और दूरस्थ इलाकों तक पहुंचते थे वहीं भूमंडलीकरण के बाद आयी नयी तकनीक, बेहतर सड़क और यातायात के संसाधनों की सुलभता की वजह से छोटे शहरों, कस्बों से भी नगर संस्करण का छपना आसान हे गया। इसके साथ ही ग्रामीण इलाकों, कस्बों में फैलते बाजारों में नयी वस्तुओं के लिए नये उपभोक्ताओं की तलाश भी शुरू हुई।

हिन्दी के अखबार इन वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का मुख्य जरिया बन कर उभरे। इन संस्करणों में स्थानीय खबरें प्रमुखता से छपने से अखबारों के पाठकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। कई मीडिया विशेषज्ञों ने इसे 'हिन्दी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार' कहा है। वे लिखते हैं, “प्रिंट मीडिया ने स्थानीय घटनाओं के कवरेज द्वारा जिलास्तर पर हिंदी की मौजूद सार्वजनिक दुनिया का विस्तार किया है और साथ ही अखबारों के स्थानीय संस्करणों के द्वारा अनजाने में इसका पुनर्विष्कार किया है।”

1990 की राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती थी कि पांच अगुवा अखबारों में हिन्दी का केवल एक समाचार-पत्र हुआ करता था। पिछले (सर्वे) ने साबित कर दिया कि हम कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं। 2010 में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले पांच अखबारों में शुरू के चार हिन्दी के ही हैं।

एक उत्साहजनक तथ्य और भी है कि आईआरएस सर्वे में जिन 42 शहरों को सबसे तेजी से उभरता माना गया है, उनमें से ज्यादातर हिन्दी हृदय प्रदेश के हैं। मतलब साफ है कि अगर पिछले तीन दशक में दक्षिण के राज्यों ने विकास की जबरदस्त पींगें बढ़ाईं तो आने वाले दशक हम हिन्दी वालों के हैं। ऐसा नहीं है कि अखबार के अध्ययन के मामले में ही यह प्रदेश अगुवा साबित हो रहे हैं। आईटी इंडस्ट्री का एक आंकड़ा बताता है कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं में नेट पर पढ़ने-लिखने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है।

मतलब साफ है। हिन्दी की आकांक्षाओं का यह विस्तार पत्रकारों की ओर भी देख रहा है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग भी समाचार पत्रों की पंक्तियों में दिखने चाहिए। पिछले आईएएस, आईआईटी और तमाम शिक्षा परिषदों के परिणामों ने साबित कर दिया है कि हिन्दी भाषियों में सबसे निचली सीढ़ियों पर बैठे लोग भी जबरदस्त उछाल के लिए तैयार हैं। हिन्दी के पत्रकारों को उनसे एक कदम आगे चलना होगा ताकि उस जगह को फिर से हासिल कर सकें, जिसे पिछले चार दशकों में हमने लगातार खोया। वर्तमान दौर को देखे तो आज हिंदी पत्रकारिता पाठकों के लिहाज से काफी आगे बढ़ती जा रही है और इसने अंग्रेजी पत्रिकाओं और अखबारों को मात देते हुए अपनी पकड़ बनाई है।

आज तमाम सॉफ्टवेयर कंपनियां हिन्दी भाषा को ध्यान में रखते हुए अपने प्रोडक्ट लांच कर रही हैं। 90 के दशक के बाद आज 2020 में हम कह सकते हैं कि हिन्दी पत्रकारिता अपनी पूरी रफ्तार में अपना विस्तार कर रही है पर दुख के साथ यह भी कहना पड़ रहा है कि इस विस्तार में भाषा की गरिमा और उत्कृष्टता गुम होती जा रही है। पत्रकार और मीडिया संस्थानों को इस बारे में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। हिन्दी अपना गौरव और पत्रकारिता को भी तभी सुरक्षित रख पाएगी।

सुरेंद्र जैन

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं रतलाम प्रेस क्लब के पूर्व अध्यक्ष हैं)

 

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